जिस काल बालक
भ्रम सकता है
घर पड़ोशीओँ का
उस काल जान जाता है
अन्य घर सब है
उसके संगी बालकोँ का
फिर जब वह
अपने पड़ा [वार्ड] से
पासवाले पड़ा मे है जाता
उस समय उस पड़ा को भी वो अपना ही है मानता ।
अन्य गाँव मेँ जब जाए वह
अपने गाँव से हो दूर,
उस काल समझता है
जिस गाँव मे घर है उसका
वह गाँव ही है उनका !
अपने गाँव का नदी तालाब
बगिचा आदि सकल,
स्वयं का ही कहता है
और समझता है इन्हे दुसरोँ से बहतर !
बड़ा होकर वह जब जाता
अन्य राज्योँ मे करने भ्रमण
वखानता है वहाँ अपने राजा ,राज्य -लोगोँ का श्रेष्ठ सभी गुण
हाती घोड़ा से लेकर
भेड़ बकरी सभी उसके राज्य के उत्तम
सकल सुख ले रहा आकार उसके ही राज्य मेँ केबल
उससे भी उच्च हो कोई कभी जब करे देशान्तर
स्वर्ग से भी उँचा लगे उसे
स्वदेश मेँ उसका घर
ज्ञानबल से
जब जनाता है
सभीओँ के पिता
है जगतपति
सहोदर ज्ञान करे
मानवसमाजके प्रति !।
तब वह जानता है
जो जितना करता है दुजोँ का उपकार
विश्वपतिके विश्वगृहमे
वह उतना ही योग्य कुमर [पुत्र]
इसी प्रकार
राज्य देश विश्व का ये जो है कथा
मानव जीवन मे प्रतीत होता है ,
दर्शित होता है सर्वथा
"मातृभूमि मातृभाषा से ममता
जिसके हुदय मे जन्मा नहीँ
उसको भी यदि ज्ञानी गणोँ मे गिनेगेँ
अज्ञानी रहेगेँ नहीँ"
*****[[स्वभाव कवि गंगाधर मेहर कि #अर्घ्यथाली काव्य ग्रंथ से
मातृभुमि कविता का हिन्दी अनुवाद ]]
कविता कि " चिन्हित अन्तिम दो लाइनेँ
ओड़िशा मे बच्चा बच्चा जानता है !!!
लेबल
- अनुवाद (3)
- कविता (47)
- काहानी (8)
- जीवन अनुभव (38)
- तर्क वितर्क (4)
- दिल से (16)
- पदचिन्ह (7)
- व्यंग्य (8)
- शब्द परिचय (7)
- हास्य कविता (1)
बुधवार, 30 मार्च 2016
सोमवार, 28 मार्च 2016
एक नारीवादी के नजर से देवी काली कि प्रतिछवि
जब मैँ माता काली का यह चित्र देखता हुँ
मेरे मनमे कई विचार उत्पन होते है
मानो चित्रकार नारीओँ को कह रहा हो बिषैले पुरुषोँ पर विजय पाना हो तो अपने क्रोध को शान्त मुख के पिछे छिपाये रखो
जिभ :- उन्हे अछा अछा खाद्य खिलाओ
त्रिशुल खड्ग :- दरकार होने पर उनपर झाड़ु बेलन चलाओ
गले मे मुण्डमाला :- हे माता तुम्हारे सहस्र भ्राता पुत्र पिता प्रेमी है वो गुलाम ही है उनका इस्तेमाल तुम अपने पति को कंट्रोल मे लाने के लिए करते रहना !
योगीनीआँ :-
तुम अकेली नहीँ हो लढ़ो विषैले पुरुषोँ के खिलाफ
तुम्हारे पिछे समुचा नारी समाज खड़ा है खड्ग Sorry sorry झाड़ु लिए
मुण्ड और रक्त पात्र :-
और गर फिर भी पति न वाज आये
तो कोई और पुरुष कि तलाश मे निकलो
अन्ततः उसे फाँसकर खुदको सती साबित करने के लिए
वह बंदे का वली देकर अपना
कार्य सिद्ध करो
रक्तपात्र व नग्नता :- पति का दिल जीतने के लिए
अपना मन ही नहीँ तन भी दान कर दो !
रक्त जैसी दिखनेवाली लाल वियर पिलाओ ताकी बिषैला पुरुष तुम्हे त्याग पर नारी गमन ना करेँ !
मेरे मनमे कई विचार उत्पन होते है
मानो चित्रकार नारीओँ को कह रहा हो बिषैले पुरुषोँ पर विजय पाना हो तो अपने क्रोध को शान्त मुख के पिछे छिपाये रखो
जिभ :- उन्हे अछा अछा खाद्य खिलाओ
त्रिशुल खड्ग :- दरकार होने पर उनपर झाड़ु बेलन चलाओ
गले मे मुण्डमाला :- हे माता तुम्हारे सहस्र भ्राता पुत्र पिता प्रेमी है वो गुलाम ही है उनका इस्तेमाल तुम अपने पति को कंट्रोल मे लाने के लिए करते रहना !
योगीनीआँ :-
तुम अकेली नहीँ हो लढ़ो विषैले पुरुषोँ के खिलाफ
तुम्हारे पिछे समुचा नारी समाज खड़ा है खड्ग Sorry sorry झाड़ु लिए
मुण्ड और रक्त पात्र :-
और गर फिर भी पति न वाज आये
तो कोई और पुरुष कि तलाश मे निकलो
अन्ततः उसे फाँसकर खुदको सती साबित करने के लिए
वह बंदे का वली देकर अपना
कार्य सिद्ध करो
रक्तपात्र व नग्नता :- पति का दिल जीतने के लिए
अपना मन ही नहीँ तन भी दान कर दो !
रक्त जैसी दिखनेवाली लाल वियर पिलाओ ताकी बिषैला पुरुष तुम्हे त्याग पर नारी गमन ना करेँ !
बुधवार, 23 मार्च 2016
कन्हैया कुमार को मेरी खुली चुनौति
कन्हैया तुम किस् खेत कि मूली हो वे ?
युँ तो हमारे भी दिल मे भरे है कईओँ के लिए नफरते
लेकिन क्या हमने किसी कमजोर क्षण मे भी
पाकिस्तान जिँदावाद
भारत मूर्दावाद के नारे दिए ?
नहीँ....
शायद हम तुम्हारे तरह
देशद्रोही नहीँ....
तुम सारे विश्व का जयजयकार करना चाहते है
अछि बात है
लेकिन क्या तुमने अपने पूर्खोँ का इतिहास पढ़रखा है ?
शायद तुमने अनुभव नहीँ किए होगोँ
विदेशीओँ का हमारे पूर्वजोँ पर किएगये उन अनगिनत अत्याचारोँ का
च्युँकि शायद तुम्हे अपने देश से ही प्रेम नहीँ !
शायद तुम्हारे पूर्वज भी गद्दार ही थे
और उनकी गद्दारी कि
कहीँ कोई अन्तिम निशानी तुममे उभर आई है ।
तुम युँ पाकिस्तान जिँदावाद का नारा बुलन्द करते हुए क्या साबित करना चाहते हो
जिस नादान ,पैदल नापाकिस्थान कि तुम पैरवी कर रहो
उसने भारत को इन 70 सालोँ मे जो जख्म दिए है
क्या तुम्हे वो नहीँ दिखे
या जानकर भी अनजान बने फिरते हो ।
और अन्ततः तुम्हे आजादी चाहिए
एक आजाद देश मे उसी देशको गरियाकर तुम अभी भी जिँदा हो
इसे तुम अपनी आजादी ही समझो
च्युँकि जिसदिन हम खुदको खुदसे आजाद कर देगेँ
न तुम रहोगे
कोमरेड़ ना तुम्हारे आका
युँ तो हमारे भी दिल मे भरे है कईओँ के लिए नफरते
लेकिन क्या हमने किसी कमजोर क्षण मे भी
पाकिस्तान जिँदावाद
भारत मूर्दावाद के नारे दिए ?
नहीँ....
शायद हम तुम्हारे तरह
देशद्रोही नहीँ....
तुम सारे विश्व का जयजयकार करना चाहते है
अछि बात है
लेकिन क्या तुमने अपने पूर्खोँ का इतिहास पढ़रखा है ?
शायद तुमने अनुभव नहीँ किए होगोँ
विदेशीओँ का हमारे पूर्वजोँ पर किएगये उन अनगिनत अत्याचारोँ का
च्युँकि शायद तुम्हे अपने देश से ही प्रेम नहीँ !
शायद तुम्हारे पूर्वज भी गद्दार ही थे
और उनकी गद्दारी कि
कहीँ कोई अन्तिम निशानी तुममे उभर आई है ।
तुम युँ पाकिस्तान जिँदावाद का नारा बुलन्द करते हुए क्या साबित करना चाहते हो
जिस नादान ,पैदल नापाकिस्थान कि तुम पैरवी कर रहो
उसने भारत को इन 70 सालोँ मे जो जख्म दिए है
क्या तुम्हे वो नहीँ दिखे
या जानकर भी अनजान बने फिरते हो ।
और अन्ततः तुम्हे आजादी चाहिए
एक आजाद देश मे उसी देशको गरियाकर तुम अभी भी जिँदा हो
इसे तुम अपनी आजादी ही समझो
च्युँकि जिसदिन हम खुदको खुदसे आजाद कर देगेँ
न तुम रहोगे
कोमरेड़ ना तुम्हारे आका
क्रान्ति चाहिए
क्रान्ति चाहिए
क्रान्ति चाहिए
कोमरेड जी को क्रान्ति चाहिए
अपने वतन को किए
आग हवाले
माँग रहे उन्हे शान्ति चाहिए
आजादी
आजादी
आजादी माँगे
फिर रहे है युँ गली गली
आजादी न हुआ
टॉफी कोई
माँग रहे है बच्चे ,
क्रान्ति चाहिए
दे दो वापु
सरग धाम से
अपने बंदरोँ को जो चाहिए
हम जो ठाने देने को
कहते भागेगेँ
नहीँ चाहिए अब नहीँ चाहिए
क्रान्ति चाहिए
कोमरेड जी को क्रान्ति चाहिए
अपने वतन को किए
आग हवाले
माँग रहे उन्हे शान्ति चाहिए
आजादी
आजादी
आजादी माँगे
फिर रहे है युँ गली गली
आजादी न हुआ
टॉफी कोई
माँग रहे है बच्चे ,
क्रान्ति चाहिए
दे दो वापु
सरग धाम से
अपने बंदरोँ को जो चाहिए
हम जो ठाने देने को
कहते भागेगेँ
नहीँ चाहिए अब नहीँ चाहिए
एक बेनामी अन्तहीन कविता
#जिँदेगी क्या है
धूल सांज कि
आज यहाँ है
कल न होगा
जिओ ऐसे
नैक दिलीसे
जैसे कल को तुम्हे
न पस्ताना होगा
#पश्च्याताप का
अश्रु पवित्र है
पापी हृदय़ भी
धुल जावत है
पापी नहीँ
सारे पाप गलत होते है
इंसान नहीँ
उसके स्वार्थ गलत होते है
#स्वार्थ पिता पुत्र को
दे लढ़ाए
देश धरम भी
बँटजाएँ
स्वार्थ के बस
जो नर हुआ
मिला है कौड़ी
जब चला बद्दुआँ
भर भर ले गया
#कौड़िओँ के भाव
बिकते है युवा
बने है मोहरे
राजनेता के
समझदार को
क्या समझना
बिना पढ़े जो
समझगया है
#समझदार जी
उसे नहीँ कहते
शत्रृ का साथ
जो देता हो
कुलनाशी
और
भातृहत्यारा
नैक नहीँ
यह सभी व्यक्ति
चाहेँ जितना वे पढ़े होँ
#पढ़त पढ़त
न पण्डित भैयो कोई
प्रीत न जाने
वो मूरख समान
कह गये है
कवीर दासजी
हम कहे क्युँ जलते हो
धूल सांज कि
आज यहाँ है
कल न होगा
जिओ ऐसे
नैक दिलीसे
जैसे कल को तुम्हे
न पस्ताना होगा
#पश्च्याताप का
अश्रु पवित्र है
पापी हृदय़ भी
धुल जावत है
पापी नहीँ
सारे पाप गलत होते है
इंसान नहीँ
उसके स्वार्थ गलत होते है
#स्वार्थ पिता पुत्र को
दे लढ़ाए
देश धरम भी
बँटजाएँ
स्वार्थ के बस
जो नर हुआ
मिला है कौड़ी
जब चला बद्दुआँ
भर भर ले गया
#कौड़िओँ के भाव
बिकते है युवा
बने है मोहरे
राजनेता के
समझदार को
क्या समझना
बिना पढ़े जो
समझगया है
#समझदार जी
उसे नहीँ कहते
शत्रृ का साथ
जो देता हो
कुलनाशी
और
भातृहत्यारा
नैक नहीँ
यह सभी व्यक्ति
चाहेँ जितना वे पढ़े होँ
#पढ़त पढ़त
न पण्डित भैयो कोई
प्रीत न जाने
वो मूरख समान
कह गये है
कवीर दासजी
हम कहे क्युँ जलते हो
गुलाम
सहिष्णुता ये नहीँ
कि दुनिया
भर के साँप बिच्छुओँ और दरिँदोँ को जिँदेगी बख्स दुँ
उन्हे
दुसरोँ को काटने को खुला छोड़ दुँ
ऐ दुनिया तु जान ले
ये नहीँ है वीसवीँ सदी
न चलेगेँ अहिँसा के वे पुराने नियम
न ही है उन्हे बतलानेवाला कोई गाँधी
आज चाहिये तुम्हे मुझे हस सबको
सुभाष ,आजाद् ,भगत्
जैसे युवकोँ कि जरुरत
और उनकी क्रान्ति....
आजाद उसे नहीँ कहते
जो गरियाता हो
मातापिता को
देश ,जात को
वो आजद नहीँ विमार कहलायेगा
और जाते जाते दुसरोँ मे
जंग छिडाए जाएगा
क्रान्ती वो नहीँ ला सकते
जो किसी के बहकावे मे बहक जाते हो
वो मोहरे बनेगेँ बाद मेँ
और जब जरुरत न होगी
चालोँ
कि
दुत्कार दिए जाएगेँ
किताबोँ को जलाए
जो क्रान्ति हो चाहते
मोहरे हि रहगये
तुम
पढ़ते कुछ बनजाते
कि दुनिया
भर के साँप बिच्छुओँ और दरिँदोँ को जिँदेगी बख्स दुँ
उन्हे
दुसरोँ को काटने को खुला छोड़ दुँ
ऐ दुनिया तु जान ले
ये नहीँ है वीसवीँ सदी
न चलेगेँ अहिँसा के वे पुराने नियम
न ही है उन्हे बतलानेवाला कोई गाँधी
आज चाहिये तुम्हे मुझे हस सबको
सुभाष ,आजाद् ,भगत्
जैसे युवकोँ कि जरुरत
और उनकी क्रान्ति....
आजाद उसे नहीँ कहते
जो गरियाता हो
मातापिता को
देश ,जात को
वो आजद नहीँ विमार कहलायेगा
और जाते जाते दुसरोँ मे
जंग छिडाए जाएगा
क्रान्ती वो नहीँ ला सकते
जो किसी के बहकावे मे बहक जाते हो
वो मोहरे बनेगेँ बाद मेँ
और जब जरुरत न होगी
चालोँ
कि
दुत्कार दिए जाएगेँ
किताबोँ को जलाए
जो क्रान्ति हो चाहते
मोहरे हि रहगये
तुम
पढ़ते कुछ बनजाते
सोमवार, 7 मार्च 2016
बारबाटी
उन्निशवीँ सदी ख्रिस्त अद्ध अन्तमे
विँश सदी अद्ध का प्रवेश हुआ जगतमे ।.....
अनन्त समय - सागर उदरमे
शत वर्ष कैसे बीता
पता न चला दृत क्षणे ।....
कितने हि थे
मनमे कामना
अपूर्ण ही रहा
न है कोई आस्वासना ।
निरपेक्ष काल न रहा
न रुका एक क्षण ।
भवमेँ संभवतः
प्रिय उसे नहीँ कोई जन ।
कितने ही दूःख दर्द अपार
कषण न हुए अन्त
काल कर रहा
सबका रक्त शोषण ।
काल न जाने
दया माया कुछ भी
करता रहा है चलते हुए
अपने कार्योँ का अन्त !
आओ नव युग तुम !
नित नूतन वर्ष
नव दिवसमे
ले कर के अनेकोँ हर्ष !!
विभु-स्वर्गधामसे
लाए हो सुख समाचार
व्याकुल संसारमे
करो तुम वह प्रचार !
वो जिनका जीवन जाने को
थे
उनमे हो तव दया से
नव प्राण संचार !
विगत शताब्दी
घोर ताप से जला
बताना तो ज़रा
सरग का शान्ति
कैसा होता है भला !!
नन्दन कानन का
नव पुष्प संभार
दूषित धरणी धाममे
हो परकाश ।
दिव्य भाव भर दो
हमरे पिण्ड मे तुम ही
पवित्र उत्साह से
मत्त हो हम सभी प्राणी ।
दया हो हम पर
एक कृपा और करना
भारत का पूर्व यश
संग तुम ले आना ।
भवरगंमे रगंते थे वे महाराज
आहा !!! दीनहिन भिखारी है
वे सब आज ..
करो देख ये सब
तुम हम पर करुणा
नव तेजमे एक बार हो
विकशित पुराना !
हे काल !
तुम सर्व शक्तिमन्त !
कोइ न जान पावे
तुमरा आदी अन्त ।
कौन है ये माँप लेगा
तुम्हारा कितना है बल !
होता च्युँकि जलमे स्थल
स्थलमे जल !
यह जो सम्मुख मे दिखरहा
बारबाटी का मैदान !!
टुटा है यहाँ लाखोँ ही गदा
रुके है धड़कन
कभी था ये वीर विहार प्रागंण
भ्रमते है वहीँ आज श्वान शिवागण ।
शुभ शैल सम विशाल सौध होता था
,सीर उठाए कभी गगन को छुँता था
गम्भीर गौरवमय है उसका इतिहास
सुनाता था वो शत्रृ को महिमा थमजाता था तब उसका स्वास
आहा आज ये धरा को देख श्रीहीन
विदारीत हो जाते ये मेरे कोमल हृदय
था यहाँ कभी शस्त्रागार अनेकानेक
ये अब बना है दुर्वादल
का मैदान
कहाँ गये वो कमाण अशनी शब्द
सुन शत्रृ जिसे हो जाते थे
स्तब्ध
वो वीरोँ को जोश दिलानेवाले वाजेगाजे कहाँ है
न दिख रही उद्यम ही
जाति के लिये हमे कहीँ
हे काल !
तुममे एक दिन सभी समाजाते
कहीँ इसलिए उत्कल आज दीनहीन तो नहीँ !
हे काल !
तुम्हारी अटल आदेशसे
ये कैसा दूर्गति उत्कल देश का
हे सती स्रोतस्वती चित्रोत्पला [mahanadi]
तेरे तटमे वसा उत्कल था
सुजला सुफला
पिई ते थे हम तेरा सुधा सम पय [जल]
बढ़ते थे तेरे ही तटमे
वीर शूरचय !
कैसे देखलिया तुने अपने ही पुत्रोँ का निधन ?
देखी और तुझमे अभी भी शेष है जीवन ?
बारबाटी जब हुआ श्रीहीन
कराल कल्होले किए घोर नाद
रिपुकूल हृदयमेँ आतकं प्रमाद
क्युँ न जन्मा तुझसे हे जननी !
थम कैसे गया तेरा वो धमनी ।
धरकर प्रलय भीम रणरुप
शत्रुओँ को करती जग से निःशेष
हाँ शायद तब ऐसा कुछ होता
बारबाटी तेरे जलमे छिपजाता !
उस युगमे स्तम्भित हुए तेरी गति
भला तु कैसे तोड़पाती समय नियति !
महावली धन्य धन्य तुम काल ।
हे कौन तोड़ेगा तुम्हारे तीक्ष्ण करवाल !
था यदि कुछ उत्कल का दोष
दोष अनुमतमे किए हो दोष
हुआ है शास्ति कषण अनेक
न करो हमपर तुम और अत्याचार।
अबसे करुणा तुमसे चाहते है
नव युगमे हो उत्कल का हीत ।
उत्कल तनये दो नव बल
उत्कल पादपे भरो नव फल
उत्कल सरिते पवित्र जीवन
उत्कल कानने स्वर्गीय सुमन
उत्कल आकाशे नव यशः रवि
उत्कल प्रकृति ले लेँ नव छवि
[
पण्डित उत्कलमणी गोपबंधु दास के ओड़िआ कविता Baarobaati का हिन्दी अनुवाद ]
विँश सदी अद्ध का प्रवेश हुआ जगतमे ।.....
अनन्त समय - सागर उदरमे
शत वर्ष कैसे बीता
पता न चला दृत क्षणे ।....
कितने हि थे
मनमे कामना
अपूर्ण ही रहा
न है कोई आस्वासना ।
निरपेक्ष काल न रहा
न रुका एक क्षण ।
भवमेँ संभवतः
प्रिय उसे नहीँ कोई जन ।
कितने ही दूःख दर्द अपार
कषण न हुए अन्त
काल कर रहा
सबका रक्त शोषण ।
काल न जाने
दया माया कुछ भी
करता रहा है चलते हुए
अपने कार्योँ का अन्त !
आओ नव युग तुम !
नित नूतन वर्ष
नव दिवसमे
ले कर के अनेकोँ हर्ष !!
विभु-स्वर्गधामसे
लाए हो सुख समाचार
व्याकुल संसारमे
करो तुम वह प्रचार !
वो जिनका जीवन जाने को
थे
उनमे हो तव दया से
नव प्राण संचार !
विगत शताब्दी
घोर ताप से जला
बताना तो ज़रा
सरग का शान्ति
कैसा होता है भला !!
नन्दन कानन का
नव पुष्प संभार
दूषित धरणी धाममे
हो परकाश ।
दिव्य भाव भर दो
हमरे पिण्ड मे तुम ही
पवित्र उत्साह से
मत्त हो हम सभी प्राणी ।
दया हो हम पर
एक कृपा और करना
भारत का पूर्व यश
संग तुम ले आना ।
भवरगंमे रगंते थे वे महाराज
आहा !!! दीनहिन भिखारी है
वे सब आज ..
करो देख ये सब
तुम हम पर करुणा
नव तेजमे एक बार हो
विकशित पुराना !
हे काल !
तुम सर्व शक्तिमन्त !
कोइ न जान पावे
तुमरा आदी अन्त ।
कौन है ये माँप लेगा
तुम्हारा कितना है बल !
होता च्युँकि जलमे स्थल
स्थलमे जल !
यह जो सम्मुख मे दिखरहा
बारबाटी का मैदान !!
टुटा है यहाँ लाखोँ ही गदा
रुके है धड़कन
कभी था ये वीर विहार प्रागंण
भ्रमते है वहीँ आज श्वान शिवागण ।
शुभ शैल सम विशाल सौध होता था
,सीर उठाए कभी गगन को छुँता था
गम्भीर गौरवमय है उसका इतिहास
सुनाता था वो शत्रृ को महिमा थमजाता था तब उसका स्वास
आहा आज ये धरा को देख श्रीहीन
विदारीत हो जाते ये मेरे कोमल हृदय
था यहाँ कभी शस्त्रागार अनेकानेक
ये अब बना है दुर्वादल
का मैदान
कहाँ गये वो कमाण अशनी शब्द
सुन शत्रृ जिसे हो जाते थे
स्तब्ध
वो वीरोँ को जोश दिलानेवाले वाजेगाजे कहाँ है
न दिख रही उद्यम ही
जाति के लिये हमे कहीँ
हे काल !
तुममे एक दिन सभी समाजाते
कहीँ इसलिए उत्कल आज दीनहीन तो नहीँ !
हे काल !
तुम्हारी अटल आदेशसे
ये कैसा दूर्गति उत्कल देश का
हे सती स्रोतस्वती चित्रोत्पला [mahanadi]
तेरे तटमे वसा उत्कल था
सुजला सुफला
पिई ते थे हम तेरा सुधा सम पय [जल]
बढ़ते थे तेरे ही तटमे
वीर शूरचय !
कैसे देखलिया तुने अपने ही पुत्रोँ का निधन ?
देखी और तुझमे अभी भी शेष है जीवन ?
बारबाटी जब हुआ श्रीहीन
कराल कल्होले किए घोर नाद
रिपुकूल हृदयमेँ आतकं प्रमाद
क्युँ न जन्मा तुझसे हे जननी !
थम कैसे गया तेरा वो धमनी ।
धरकर प्रलय भीम रणरुप
शत्रुओँ को करती जग से निःशेष
हाँ शायद तब ऐसा कुछ होता
बारबाटी तेरे जलमे छिपजाता !
उस युगमे स्तम्भित हुए तेरी गति
भला तु कैसे तोड़पाती समय नियति !
महावली धन्य धन्य तुम काल ।
हे कौन तोड़ेगा तुम्हारे तीक्ष्ण करवाल !
था यदि कुछ उत्कल का दोष
दोष अनुमतमे किए हो दोष
हुआ है शास्ति कषण अनेक
न करो हमपर तुम और अत्याचार।
अबसे करुणा तुमसे चाहते है
नव युगमे हो उत्कल का हीत ।
उत्कल तनये दो नव बल
उत्कल पादपे भरो नव फल
उत्कल सरिते पवित्र जीवन
उत्कल कानने स्वर्गीय सुमन
उत्कल आकाशे नव यशः रवि
उत्कल प्रकृति ले लेँ नव छवि
[
पण्डित उत्कलमणी गोपबंधु दास के ओड़िआ कविता Baarobaati का हिन्दी अनुवाद ]
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