इतना विशाल यह गगन
मेरे नैन अति क्षुद्र
नभ सारा मैं
देख नहीं सकता ।
प्रशस्त है इतना पृथ्वी
और मैं जैसे एक चिटी
मुझमे वह बात कहाँ
उसे मैं समा नहीं सकता ।
इतना बडा है सागर
करोडों ग्यालेन जिसमें है जल
मैं नहीं आगस्त्य
उसे पीई नहीं सकता.....।
प्रबल पवन मुझसे
कितना बलवान
मैं सामान्य जीव
उड जाऊंगा उसे
झेल नहीं सकता ।
भीमकाय यह पर्वत
और मैं मात्र एक मुषक
नहीं मैं उसका वक्ष चीर सकता .....।
नहीं ! यदि ऐसे ही सोचे होते
हमारे पूर्वज
मानव सभ्यता न जन्म लेता ।
परास्त हमने हर
देवता को किया है
च्युंकि अनन्त सत् प्रयत्न के आगे
कोई टिक नहीं सकता ।