सोमवार, 5 जनवरी 2015

शुन्य एक गजल

दुःख मेँ जीवन कि अंत होगा कौन समझेगा

धीरज रतन कि खान है कौन समझेगा

शैया मिलता है काटेँदार फुलोँ कि प्यार मेँ

सरल हृदय को ज्ञात था कौन समझेगा

लुटगया चार घडी के प्रवास मेँ

युगोँ युगोँ से पहचान थी कौन समझेगा

वैद गये और कुछ आराम मिलगया

दर्द ही मेरा मर्ज था कौन समझेगा !

दे गई जो धार जमाना कि जीभ ने

निज कर्मोँ कि प्रायश्चित थी कौन समझेगा !

जहाँ जहाँ मिले उडते सौन्दर्य कि ध्वजा ।

वहाँ वहाँ प्रेम कि पदचिह्न थी कौन समझेगा ।

पागल के मौन से जिस कयामत से परिचय हुआ था ।

मित्था अभिमान भरा अभिव्यक्ति थी कौन समझेगा ।

कारण न पुछ प्रेमी हृदय . जन्म मृत्यु कि निर्दोष खेचतान थी कौन समझेगा ।

वेहोश हो गया मौत जिसके लिये

जीवन सुरा कि मद थी कौन समझेगा

ईश्वर के रुप मेँ जिन्हे सारादुनिया जाने

वो शुन्य कि ही पहचान थी कौन समझेगा

(गुजराती शायरी "शुन्य"कि हिँदी अनुवाद]

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