दुःख मेँ जीवन कि अंत होगा कौन समझेगा
धीरज रतन कि खान है कौन समझेगा
शैया मिलता है काटेँदार फुलोँ कि प्यार मेँ
सरल हृदय को ज्ञात था कौन समझेगा
लुटगया चार घडी के प्रवास मेँ
युगोँ युगोँ से पहचान थी कौन समझेगा
वैद गये और कुछ आराम मिलगया
दर्द ही मेरा मर्ज था कौन समझेगा !
दे गई जो धार जमाना कि जीभ ने
निज कर्मोँ कि प्रायश्चित थी कौन समझेगा !
जहाँ जहाँ मिले उडते सौन्दर्य कि ध्वजा ।
वहाँ वहाँ प्रेम कि पदचिह्न थी कौन समझेगा ।
पागल के मौन से जिस कयामत से परिचय हुआ था ।
मित्था अभिमान भरा अभिव्यक्ति थी कौन समझेगा ।
कारण न पुछ प्रेमी हृदय . जन्म मृत्यु कि निर्दोष खेचतान थी कौन समझेगा ।
वेहोश हो गया मौत जिसके लिये
जीवन सुरा कि मद थी कौन समझेगा
ईश्वर के रुप मेँ जिन्हे सारादुनिया जाने
वो शुन्य कि ही पहचान थी कौन समझेगा
(गुजराती शायरी "शुन्य"कि हिँदी अनुवाद]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें